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कविता

गधा कहीं का

ए. अरविंदाक्षन


अकलमन्दों की विशाल दुनिया में
मुझे क्यों अच्छा लगता है
एक गधा होकर रह जाऊँ।
निरीह
मेहनती
लापरवाह जानवर
गधा बनकर रह जाऊँ।
फिर देखता रह सकूँ
कितना बोझ मैं ढो रहा हूँ
जब बोझ बढ़ता जाएगा
इस ताक में मैं रह सकूँ
इतिहास के अर्द्धसत्यों को
अपने पीछे वाले पैरों की लात से
झटकाकर अलग कर सकूँ।

 


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